Friday, December 23, 2011

वजूद


हसरते दिल की यूँ पिघलती चली गई
ख्वाहिशें दिल की यूँ जलती चली गई
सूरज की रौशनी थी जैसे चाँद के लिए
वो रौशनी बदन पे यूँ मालती चली गई

बुझ रहा था चाँद आसमान में कहीं
और सज रहे थे तारे जमीन पर यहीं
खो रहा था वजूद पानी का बादलों में
उड़ते चले थे वो भी अनजान रास्तों में

सिकुड़ रहा था सूरज, उसे ठंढ लग रही थी 
शायद बादल की नज़र आज उसपर पड़ी थी
बिखर गया वो भी जाने किस लिए
चाँद आज सुना थाशायद इसलिए

वो देखते थे मूड कर तारों को आज भी
उलझी हो उन्हीं में जैसे उनकी जिंदगी
सावरे थे सपने उनके भी कल 
मगर आज
आज जुदा है उनसेउनका हर पल 

No comments:

Post a Comment