Sunday, April 24, 2011

साम्याँ

मेरी बेबशी की दास्ताँ
मैं क्या लिखूँ
जो दे इजाजत वो
उसे दुआ लिखूँ
मुड़कर देखता नहीं
मै जानती हूँ
फिर भी नाम उसका
वफ़ा लिखूँ
लौट आती हैं टकराकर
हशरतें उससे
मैं इन हशरतों  को
कहाँ रखूँ
बरसता आसमान मेरी आँखों से आज
मैं नम आँखों से
दिल की दास्ताँ लिखूँ
कभी सोचती हूँ भीड़ में
तनहा-तनहा
मैं किसके...? ? ?  वास्ते
यादों का साम्याँ रखूँ

Monday, April 18, 2011

अक्स


जुदाई की सभी रस्मों को तोड़ कर
उभरता अक्स उसका
दिल के टुकड़ों में 
अपना वजूद तलाश करता है
ढूंढता है
अपनी कहानी के बिखरे पन्नों को
जिसे उसने हीं बिखेरा था
वो दिन अब भी याद है मुझे
वो कितना रोया था
चिल्लाया था
आँखों से बहते मोती
जिसे वो खुद हीं पी रहा था
और देख रहा था मुझे
अपनी जलती सुलगती नज़रों से
कुछ सवाल थे जिनमे..............
............. और नाराज़गी भी