Friday, September 2, 2011

मेरी सोच का सागर


अपनी सोच के सागर को
जो मैं समेट लूँ
बोलो,
कैसे उस पार जा सकोगे तुम ?
वो जो हर घडी, हर पल
मुझसे दूर है
बोलो,
कैसे उसको मुझ तक ला सकोगे तुम ?
तुम कहते हो
आसान है सब
सिमटना, बिखरना, टूटना, चाहना
मगर पूछो मेरे हाथो की  इन लकीरों से
कितना मुस्किल है इनका बदलना
पूछो मेरी उँगलियों से
कितना मुस्किल है इनका 
बंद होना और खुलना
तुम कहते हो आसान है सब
ये जो एहसास के चादर
तुम देखते हो
ये जिनके साथ
अपनी उँगलियों से खेलते हो
ये सिर्फ मेरे नहीं
तुम्हारे भी हैं
क्यों अनजान बनते हो ?
हर सच और झूठ से
क्या चाहते हो हाशिल करना ?
इन सब से
कभी खामोशी की दीवार खड़ी करते हो
कभी चुप्पी  की लकीर खीच देते हो 
क्या सोचते हो?
बाँट देंगे ये हमे
मिटा देंगे मुझे क्या?
ये मेरी सोच का सागर है
हर दीवार गिरा देगा
हर लकीर मिटा देगा
तुम तक पहुचने का 
रास्ता भी बता देगा
यूँ फासले पे खड़े होकर
तुम सोचते रहे हो
यकीन है मुझको
तुम्हारी सोच का दरिया
ये फासला मिटा देगा 
ये मेरी सोच का सागर
तेरी हर सोच को
अपना बना लेगा
ये मेरी सोच का सागर है..........

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