Sunday, April 24, 2011

साम्याँ

मेरी बेबशी की दास्ताँ
मैं क्या लिखूँ
जो दे इजाजत वो
उसे दुआ लिखूँ
मुड़कर देखता नहीं
मै जानती हूँ
फिर भी नाम उसका
वफ़ा लिखूँ
लौट आती हैं टकराकर
हशरतें उससे
मैं इन हशरतों  को
कहाँ रखूँ
बरसता आसमान मेरी आँखों से आज
मैं नम आँखों से
दिल की दास्ताँ लिखूँ
कभी सोचती हूँ भीड़ में
तनहा-तनहा
मैं किसके...? ? ?  वास्ते
यादों का साम्याँ रखूँ

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